अरी ओ आत्मा री! कन्या, भोली, कुंवारी!
हुआ खेल पूरा अब तो मन से सम्बन्ध तोड़!
महाशून्य के साथ तेरी सगाई रची गई,
अब तो चैतन्य की भटकती दिशा मोड़!
रूप, गंध, स्पर्श, शब्द से विरस होकर, अरूप, निशब्द, अस्पर्शित, निर्धूम से नाता जोड़!
वासना की ताल पे नाचती थकी नहीं तू ?
अब तो इस मायाजाल को इसी के सर फोड़!
कर्तत्व के बोझ से क्यूँ मरी जाती,
प्रेम और करुणा के संग साक्षी का रस निचोड़ !
अरी ओ आत्मा री ! स्वच्छंद ! श्वेत्वरनी ! काल के घने मंडराते बादलों को छोड़ !
अरी ओ आत्मा री ! कन्या भोली कुंवारी !