इतनी सारी दुविधायें हैं जीवन में कि
सुविधा के लिये स्थान ही नहीं है कहीं
मरते हुये बच्चे पर नज़र गड़ाये बैठे गिध्द हैं
और कहीं एक हरिणी है
अपने छौने को बचाने के लिये
सुपुर्द करती बाघ के जबड़ों में अपनी देह
आह!
अख़लाक की चीखें गूँज रही हैं कानों में
और उस स्त्री का चेहरा जो
कड़ा कर के अपना मन कूद रही है
अथाह गहरे कूँए में
बिलख रहा है पाट पर बैठा दुधमुँहा बच्चा
और सरकार के लिये जरूरी है
शहरों का नाम बदलना
बचाओ!बचाओ!की चीत्कारें गूँज रही हैं
हर दिशा में बदहवास
दौड़ते लोग दिखाई देते हैं
सुनो!
कुछ दिन के लिये स्थगित रखो प्रेम
अभी ज़हर बहुत है हवाओं में