Mantras from Savitri

Sri Aurobindo Ghosh

Poetry

About The Author

Sri Aurobindo Ghosh

Sri Aurobindo (1872 – 1950) was a key figure in the early movement for Indian Independence. He was arrested by the British on charges of sedition and after a deep spiritual experience in jail, he left politics to pursue a path of spiritual seeking. Sri Aurobindo founded an ashram in Pondicherry, where he became a prominent spirit...

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आपसे जब सामना होने लगा

Ikram Rajasthani

आपसे जब सामना होने लगा,
ज़िन्दगी में क्या से क्या होने लगा।
चैन मिलता है तड़पने से हमें,
दर्द ही दिल की दवा होने लगा।
ज़िन्दगी की राह मुश्किल हो गई,
हर क़दम पर हादसा होने लगा।
दोस्तों से दोस्ती की बात पर,
फ़ासला दर फ़ासला होने लगा।
जो ग़जल में शेर बनकर के रहा,
काफ़ियों से वो ज़ुदा होने लगा।
जैसे हो तस्वीर इक दीवार पर,
आदमी अब क्या से क्या होने लगा।
ये तुम्हारी याद है या ज़ख्म है,
दर्द पहले से सिवा होने लगा।

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The Universe and I

Dr. Gaurav Mathur

I sit silent in my chair
Poised with pen and paper
All eyes and ears
Waiting to catch a glimmer
Or the faintest whisper
Of the Eternal
Nothing
And all around me
Chirping birds, flowing water
Rustling leaves, drizzling rain
Distract and divert
Dissuade and derail me
And I achieve, or so it seems
Nothing
Life, the universe
Everything
A grand conspiracy
Overrules my negation
Overwhelms my senses
I am drowned
In a deluge of Being
My peace and quiet
My inner solitude
My silent core
All are hushed by the roaring tumult
Of Life, the universe
Everything
Even the solitary flame within
Quenched by the fiery glow
Of a thousand splendid suns
Blazing forth forever
Life, the universe
Everything
Have consumed me completely
Nowhere to run, nowhere to hide
There is no outer world
There is no me inside
Only sitting and flowing
Silence and chirping
Paper and leaves
Drizzling and blazing
Nothing and everything
Life, the universe and I are One.

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जो बीत गई सो बात गई

Harivansh Rai Bachchan

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उसपर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठतें हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई
मृदु मिटटी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई

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और भी दूँ

Ramavtar Tyagi

मन समर्पित, तन समर्पित,
और यह जीवन समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
माँ तुम्‍हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन,
किंतु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन-
थाल में लाऊँ सजाकर भाल मैं जब भी,
कर दया स्‍वीकार लेना यह समर्पण।
गान अर्पित, प्राण अर्पित,
रक्‍त का कण-कण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
माँज दो तलवार को, लाओ न देरी,
बाँध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी,
भाल पर मल दो, चरण की धूल थोड़ी,
शीश पर आशीष की छाया धनेरी।
स्‍वप्‍न अर्पित, प्रश्‍न अर्पित,
आयु का क्षण-क्षण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो,
गाँव मेरी, द्वार-घर मेरी, ऑंगन, क्षमा दो,
आज सीधे हाथ में तलवार दे-दो,
और बाऍं हाथ में ध्‍वज को थमा दो।
सुमन अर्पित, चमन अर्पित,
नीड़ का तृण-तृण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

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मैं दिल्ली हूँ

Ramavtar Tyagi

मैं दिल्ली हूँ मैंने कितनी, रंगीन बहारें देखी हैं।
अपने आँगन में सपनों की, हर ओर कितारें देखीं हैं॥
मैंने बलशाली राजाओं के, ताज उतरते देखे हैं।
मैंने जीवन की गलियों से तूफ़ान गुज़रते देखे हैं॥
देखा है; कितनी बार जनम के, हाथों मरघट हार गया।
देखा है; कितनी बार पसीना, मानव का बेकार गया॥
मैंने उठते-गिरते देखीं, सोने-चाँदी की मीनारें।
मैंने हँसते-रोते देखीं, महलों की ऊँची दीवारें॥
गर्मी का ताप सहा मैंने, झेला अनगिनत बरसातों को।
मैंने गाते-गाते काटा जाड़े की ठंडी रातों को॥
पतझर से मेरा चमन न जाने, कितनी बार गया लूटा।
पर मैं ऐसी पटरानी हूँ, मुझसे सिंगार नहीं रूठा॥
आँखें खोली; देखा मैंने, मेरे खंडहर जगमगा गए।
हर बार लुटेरे आ-आकर, मेरी क़िस्मत को जगा गए ॥
मुझको सौ बार उजाड़ा है, सौ बार बसाया है मुझको।
अक्सर भूचालों ने आकर, हर बार सजाया है मुझको॥
यह हुआ कि वर्षों तक मेरी, हर रात रही काली-काली।
यह हुआ कि मेरे आँगन में, बरसी जी भर कर उजियाली।।
वर्षों मेरे चौराहों पर, घूमा है ज़ालिम सन्नाटा।
मुझको सौभाग्य मिला मैंने, दुनिया भर को कंचन बाँटा।।
जब चाहा मैंने तूफ़ानों के, अभिमानों को कुचल दिया।
हँसकर मुरझाई कलियों को, मैंने उपवन में बदल दिया।।
मुझ पर कितने संकट आए, आए सब रोकर चले गए।
युद्धों के बरसाती बादल, मेरे पग धोकर चले गए।।
कब मेरी नींव रखी किसने, यह तो मुझको भी याद नहीं।
पूँछू किससे; नाना-नानी, मेरा कोई आबाद नहीं।।
इतिहास बताएगा कैसे, वह मेरा नन्हा भाई है।
उसको इन्सानों की भाषा तक, मैंने स्वयं सिखाई है।।
हाँ, ग्रन्थ महाभारत थोड़ा, बचपन का हाल बताता है।
मेरे बचपन का इन्द्रप्रस्थ ही, नाम बताया जाता है।।
कहते हैं मुझे पांडवों ने ही, पहली बार बसाया था।
और उन्होंने इन्द्रपुरी से सुन्दर मुझे सजाया था।।
मेरी सुन्दरता के आगे सब, दुनिया पानी भरती थी।
सुनते हैं देश विदेशो पर, तब भी मैं शासन करती थी।।
किन्तु महाभारत से जो, हर ओर तबाही आई थी।
वह शायद मेरे घर में भी, कोई वीरानी लाई थी।।
बस उससे आगे सदियों तक, मेरा इतिहास नहीं मिलता।
मैं कितनी बार बसी-उजड़ी, इसका कुछ पता नहीं चलता।।
ईसा से सात सदी पीछे, फिर बन्द कहानी शुरू हुई।
आठवीं सदी के आते ही, भरपूर जवानी शुरू हुई।।
सचमुच तो राजा अनंगपाल ने फिरसे मुझे बसाया था।
मेरी शोभा के आगे तब, नन्दन-वन भी शरमाया था।।
मेरे पाँवों को यमुना ने, आंखों से मल-मल धोया था।
बादल ने मेरे होंठों को आ-आकर स्वयं भिगोया था।।

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आँचल बुनते रह जाओगे

Ramavtar Tyagi

मैं तो तोड़ मोड़ के बन्धन,
अपने गाँव चला जाऊँगा,
तुम आकर्षक सम्बंधों का,
आँचल बुनते रह जाओगे।
मेला काफी दर्शनीय है
पर मुझको कुछ जमा नहीं है,
इन मोहक कागजी खिलौनों में
मेरा मन रमा नहीं है।
मैं तो रंग मंच से अपने
अनुभव गाकर उठ जाऊँगा
लेकिन, तुम बैठे गीतों का
गुँजन सुनते रह जाओगे।
आँसू नहीं फला करते है,
रोने वाले क्यों रोता है?
जीवन से पहले पीड़ा का
शायद अन्त नहीं होता है।
मै तो किसी सर्द मौसम की
बाहों में मुरझा जाऊँगा
तुम केवल मेरे फूलों को
गुमसुम चुनते रहे जाओगे।
मुझको मोह जोड़ना होगा,
केवल जलती चिंगारी से।
मुझसे सन्धि नहीं हो पाती
जीवन की हर लाचारी से।
मैं तो किसी भँवर के कन्धे
चढ़कर पार उतर जाऊँगा,
तट पर बैठे इसी तरह से
तुम सिर धुनते रह जाआगे।

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स्मृतियाँ

Subhadra Kumari Chauhan

क्या कहते हो? किसी तरह भी
भूलूँ और भुलाने दूँ?
गत जीवन को तरल मेघ-सा
स्मृति-नभ में मिट जाने दूँ?
शान्ति और सुख से ये
जीवन के दिन शेष बिताने दूँ?
कोई निश्चित मार्ग बनाकर
चलूँ तुम्हें भी जाने दूँ?
कैसा निश्चित मार्ग? ह्रदय-धन
समझ नहीं पाती हूँ मैं
वही समझने एक बार फिर
क्षमा करो आती हूँ मैं।
जहाँ तुम्हारे चरण, वहीँ पर
पद-रज बनी पड़ी हूँ मैं
मेरा निश्चित मार्ग यही है
ध्रुव-सी अटल अड़ी हूँ मैं।
भूलो तो सर्वस्व ! भला वे
दर्शन की प्यासी घड़ियाँ
भूलो मधुर मिलन को, भूलो
बातों की उलझी लड़ियाँ।
भूलो प्रीति प्रतिज्ञाओं को
आशाओं विश्वासों को
भूलो अगर भूल सकते हो
आंसू और उसासों को।
मुझे छोड़ कर तुम्हें प्राणधन
सुख या शांति नहीं होगी
यही बात तुम भी कहते थे
सोचो, भ्रान्ति नहीं होगी।
सुख को मधुर बनाने वाले
दुःख को भूल नहीं सकते
सुख में कसक उठूँगी मैं प्रिय
मुझको भूल नहीं सकते।
मुझको कैसे भूल सकोगे
जीवन-पथ-दर्शक मैं थी
प्राणों की थी प्राण ह्रदय की
सोचो तो, हर्षक मैं थी।
मैं थी उज्ज्वल स्फूर्ति, पूर्ति
थी प्यारी अभिलाषाओं की
मैं ही तो थी मूर्ति तुम्हारी
बड़ी-बड़ी आशाओं की।
आओ चलो, कहाँ जाओगे
मुझे अकेली छोड़, सखे!
बंधे हुए हो ह्रदय-पाश में
नहीं सकोगे तोड़, सखे!

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इसका रोना

Subhadra Kumari Chauhan

तुम कहते हो - मुझको इसका रोना नहीं सुहाता है ।
मैं कहती हूँ - इस रोने से अनुपम सुख छा जाता है ।
सच कहती हूँ, इस रोने की छवि को जरा निहारोगे ।
बड़ी-बड़ी आँसू की बूँदों पर मुक्तावली वारोगे । 1 ।

ये नन्हे से होंठ और यह लम्बी-सी सिसकी देखो ।
यह छोटा सा गला और यह गहरी-सी हिचकी देखो ।
कैसी करुणा-जनक दृष्टि है, हृदय उमड़ कर आया है ।
छिपे हुए आत्मीय भाव को यह उभार कर लाया है । 2 ।

हँसी बाहरी, चहल-पहल को ही बहुधा दरसाती है ।
पर रोने में अंतर तम तक की हलचल मच जाती है ।
जिससे सोई हुई आत्मा जागती है, अकुलाती है ।
छुटे हुए किसी साथी को अपने पास बुलाती है । 3 ।

मैं सुनती हूँ कोई मेरा मुझको अहा ! बुलाता है ।
जिसकी करुणापूर्ण चीख से मेरा केवल नाता है ।
मेरे ऊपर वह निर्भर है खाने, पीने, सोने में ।
जीवन की प्रत्येक क्रिया में, हँसने में ज्यों रोने में । 4 ।

मैं हूँ उसकी प्रकृति संगिनी उसकी जन्म-प्रदाता हूँ ।
वह मेरी प्यारी बिटिया है मैं ही उसकी प्यारी माता हूँ ।
तुमको सुन कर चिढ़ आती है मुझ को होता है अभिमान ।
जैसे भक्तों की पुकार सुन गर्वित होते हैं भगवान । 5 ।

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ठुकरा दो या प्यार करो

Subhadra Kumari Chauhan

देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं
धूमधाम से साज-बाज से वे मंदिर में आते हैं
मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं
मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी
फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आयी
धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं
कैसे करूँ कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं
मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं
नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आयी
पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ चली आयी
पूजा और पुजापा प्रभुवर इसी पुजारिन को समझो
दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो
मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूँ
जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आयी हूँ
चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो

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Life

Sri Aurobindo Ghosh

Mystic Miracle, daughter of Delight,
Life, thou ecstasy,
Let the radius of thy flight
Be eternity.
On thy wings thou bearest high
Glory and disdain,
Godhead and mortality,
Ecstasy and pain.
Take me in thy wild embrace
Without weak reserve
Body dire and unveiled face;
Faint not, Life, nor swerve.
All thy bliss I would explore,
All thy tyranny.
Cruel like the lion’s roar,
Sweet like springtide be.
Like a Titan I would take,
Like a God enjoy,
Like a man contend and make,
Revel like a boy.
More I will not ask of thee,
Nor my fate would choose;
King or conquered let me be,
Live or lose.
Even in rags I am a god;
Fallen, I am divine;
High I triumph when down-trod,
Long I live when slain.

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