In The Forest

Sarojini Naidu

Poetry

About The Author

Sarojini Naidu

Sarojini Naidu, original name Sarojini Chattopadhyay, (born February 13, 1879, Hyderabad, India—died March 2, 1949, Lucknow), was a political activist, feminist, poet, and the first Indian woman to be president of the Indian National Congress and to be appointed an Indian state governor. She was also called “the Nightingale...

Related Content

हम मेहनतकश

Faiz Ahmed Faiz

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।
यां पर्वत-पर्वत हीरे हैं, यां सागर-सागर मोती हैं,
ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे।
वो सेठ व्‍यापारी रजवारे, दस लाख तो हम हैं दस करोड,
ये कब तक अमरीका से, जीने का सहारा मांगेंगे।
जो खून बहे जो बाग उजडे जो गीत दिलों में कत्‍ल हुए,
हर कतरे का हर गुंचे का, हर गीत का बदला मांगेंगे।
जब सब सीधा हो जाएगा, जब सब झगडे मिट जायेंगे,
हम मेहनत से उपजायेंगे, बस बांट बराबर खायेंगे।
हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।

Read More
आज मुझसे दूर दुनियाँ

Harivansh Rai Bachchan

भावनाओं से विनिर्मित
कल्पनाओं से सुसज्जित
कर चुकी मेरे हृदय का स्वप्न चकनाचूर दुनियाँ
आज मुझसे दूर दुनियाँ
बात पिछली भूल जाओ
दूसरी नगरी बसाओ
प्रेमियों के प्रति रही है, हाय कितनी क्रूर दुनियाँ
आज मुझसे दूर दुनियाँ
वह समझ मुझको न पाती
और मेरा दिल जलाती
है चिता की राख कर में, माँगती सिंदूर दुनियाँ
आज मुझसे दूर दुनियाँ

Read More
मधुशाला

Harivansh Rai Bachchan

मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१।

प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,
एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।

प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,
एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३।

भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४।

मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,
भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,
उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,
अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५।

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'। ६।

चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७।

मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,
हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८।

मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला,
अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला,
बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे,
रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।।९।

सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला,
सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला,
बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है,
चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।१०।

जलतरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला,
वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला,
डाँट डपट मधुविक्रेता की ध्वनित पखावज करती है,
मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला।।११।

मेहंदी रंजित मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला,
अंगूरी अवगुंठन डाले स्वर्ण वर्ण साकीबाला,
पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले,
इन्द्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली मधुशाला।।१२।

हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला,
अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला,
बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले,
पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।।१३।

लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४।

जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला,
जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला,
ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है,
जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।१५।

बहती हाला देखी, देखो लपट उठाती अब हाला,
देखो प्याला अब छूते ही होंठ जला देनेवाला,
'होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले'
ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।।१६।

धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।१७।

लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,
हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,
हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा,
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।।१८।

बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,
रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला'
'और लिये जा, और पीये जा', इसी मंत्र का जाप करे'
मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।।१९।

बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,
बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला,
लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें,
रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।२०।

Read More
तृप्त

Dr. Omendra Ratnu

उठूँ तुझे छूने को, लालायित मन से आऊँ ,
पा के तुझे प्रगाढ़ विश्राम में, निश्चिंत!
क्या करूं अतिक्रमण, ठिठक के रह जाऊं,
करवट से तेरी उठी हलचल के स्पंदन में ही,…
अनुभूत हो तेरा स्पर्श, मैं तृप्त लौट जाऊं!

Read More
मौन का साम्राज्य

Dr. Omendra Ratnu

मैंने देखा मौन का साम्राज्य,
वाणी के जगत के समानांतर,
धारण किये उसे भी,
किन्तु अस्पर्शित, अभेद्य, अप्रभावित,
स्थापित एक वर्तुल में, स्वयं में लीन
विस्तीर्ण और अविभाज्य !
मैंने देखा मौन का साम्राज्य ,
वाणी के भरता घाव स्थायित्व से ,
गर्भवती स्त्री सा,
स्वयं से ठीक विपरीत को पोषण दे ,
पूरी सहिष्णुता से,
बिन राजा, बिन प्रजा, ये कैसा राज्य !
मैंने देखा मौन का साम्राज्य ...
भासता निष्ठुर, किन्तु है करुणामय ,
बैठा अनमना सा,
ढोता ब्रह्माण्ड को सहज ही ,
निश्चिन्त उपवास में रत ,
देता प्रवेश निस्पंद, विदा भी, बिन क्रंदन ,
परम अद्वैत में स्थित,
न कुछ ग्राह्य, न त्याज्य!
मैंने देखा मौन का साम्राज्य

Read More
Casually

Dr. Pariksith Singh

Casually
Without importance
Into this world arrive
Without splitting
Or choosing
As if the breeze should steal
Into the garden without a flutter
Of leaves
Arrive unannounced and leave
Just as soon
Without a ruffle
As a wave should rise in a still pool
And melt in the quietude
Ever so lightly
Depart even
As you arrive

Read More
कैसी होगी तेरी रात परदेस में

Ikram Rajasthani

कैसी होगी तेरी रात परदेस में,
चाँद पूछेगा हालात परदेस में।
ख्व़ाब बनकर निगाहों में आ जाएँगे,
हम करेंगे, मुलाकाल परदेस में।
बादलों से कहेंगे कि कर दे वहाँ,
आँसुओं की ये बरसात परदेस में।
रंग चेहरे पे लब पे हँसी दिल को चैन,
कौन देगा ये सौग़ात परदेस में।
तुमको महसूस होती नहीं जो यहाँ,
याद आएगी वो बात परदेस में।
हर क़दम पे नज़र तुमको आएँगे हम,
देखना ये करामात परदेस में।
ज़ेहन की वादियों में सजालो इन्हें,
काम आएँगे जज्ब़ात परदेस में।

Read More
सुकून

Ikram Rajasthani

ढूंढ़ता है आदमी, सदियों से दुनिया, में सुकून।
धूप में साया मिले, कमल जाये सहरा में सुकून।
छटपटाती है किनारों, पर मिलन की आस में
हर लहर पा जाती है, जाकर के दरिया में सुकून।
बेक़रारी है कभी, पूरे समन्दर की तरह,
और कभी मिल जाता है बस, एक क़तरे में सुकून।
ज़िन्दगी को इससे ज्य़ादा और क्या कुछ चाहिए?
लबस हो इक प्यार का, और उसके लमहात में सुकून।
हर सवाली चेहरे पे लिख़ी इबारत देखिए,
चैन है कि न आँखों में, और कौन से दिल में सुकून।
वो खुदा से कम नहीं लगता है, मुझको दोस्तो,
मेरे ख़ातिर माँगता है जो दुआओं में सुकून।
ये उसी दामन की भीनी खुशबू का एहसास है,
जो मुझे महसूस होता है हवाओं में सुकून।

Read More
Zakhm phir se khula

Dr. Pariksith Singh

ज़ख्म फिर से खुला तो हुआ आईना
लहू की जगह बस एक शुआ आईना
तेरा ही अक्स झलकता था नज़रों में
दिल से उठती बस एक दुआ आईना

A wound opened again and became the mirror
In place of blood, a ray of light the mirror
Your reflection alone shimmered in my eyes
Only a prayer arising from my heart the mirror

Read More
विश्व सारा सो रहा है

Harivansh Rai Bachchan

हैं विचरते स्वप्न सुंदर,
किंतु इनका संग तजकर,
व्योम–व्यापी शून्यता का कौन साथी हो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
भूमि पर सर सरित् निर्झर,
किंतु इनसे दूर जाकर,
कौन अपने घाव अंबर की नदी में धो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
न्याय–न्यायधीश भू पर,
पास, पर, इनके न जाकर,
कौन तारों की सभा में दुःख अपना रो रहा है?
बिश्व सारा सो रहा है!

Read More
चाँदी की उर्वशी

Ramavtar Tyagi

चाँदी की उर्वशी न कर दे युग के तप संयम को खंडित
भर कर आग अंक में मुझको सारी रात जागना होगा ।
मैं मर जाता अगर रात भी मिलती नहीं सुबह को खोकर
जीवन का जीना भी क्या है, गीतों का शरणागत होकर,
मन है राजरोग का रोगी, आशा है शव की परिणीता
डूब न जाये वंश प्यास का पनघट मुझे त्यागना होगा ॥
सपनों का अपराध नहीं है, मन को ही भा गयी उदासी
ज्यादा देर किसी नगरी में रुकते नहीं संत सन्यासी
जो कुछ भी माँगोगे दूँगा ये सपने तो परमहंस हैं
मुझको नंगे पाँव धार पर आँखें मूँद भागना होगा ॥
गागर क्या है - कंठ लगाकर जल को रोक लिया माटी ने
जीवन क्या है - जैसे स्वर को वापिस भेज दिया घाटी ने,
गीतों का दर्पण छोटा है जीवन का आकार बड़ा है
जीवन की खातिर गीतों को अब विस्तार माँगना होगा ॥
चुनना है बस दर्द सुदामा लड़ना है अन्याय कंस से
जीवन मरणासन्न पड़ा है, लालच के विष भरे दंश से
गीता में जो सत्य लिखा है, वह भी पूरा सत्य नहीं है
चिन्तन की लछ्मन रेखा को थोड़ा आज लाँघना होगा ॥

Read More
Palanquin Bearers

Sarojini Naidu

Lightly, O lightly we bear her along,
She sways like a flower in the wind of our song;
She skims like a bird on the foam of a stream,
She floats like a laugh from the lips of a dream.
Gaily, O gaily we glide and we sing,
We bear her along like a pearl on a string.
Softly, O softly we bear her along,
She hangs like a star in the dew of our song;
She springs like a beam on the brow of the tide,
She falls like a tear from the eyes of a bride.
Lightly, O lightly we glide and we sing,
We bear her along like a pearl on a string.

Read More
Queen's Rival

Sarojini Naidu

Queen Gulnaar sat on her ivory bed,
Around her countless treasures were spread;
Her chamber walls were richly inlaid
With agate, porphyry, onyx and jade;
The tissues that veiled her delicate breast,
Glowed with the hues of a lapwing's crest;
But still she gazed in her mirror and sighed
"O King, my heart is unsatisfied."
King Feroz bent from his ebony seat:
"Is thy least desire unfulfilled, O Sweet?
"Let thy mouth speak and my life be spent
To clear the sky of thy discontent."
"I tire of my beauty, I tire of this
Empty splendour and shadowless bliss;
"With none to envy and none gainsay,
No savour or salt hath my dream or day."
Queen Gulnaar sighed like a murmuring rose:
"Give me a rival, O King Feroz."

II
King Feroz spoke to his Chief Vizier:
"Lo! ere to-morrow's dawn be here,
"Send forth my messengers over the sea,
To seek seven beautiful brides for me;
"Radiant of feature and regal of mien,
Seven handmaids meet for the Persian Queen."
. . . . .
Seven new moon tides at the Vesper call,
King Feroz led to Queen Gulnaar's hall
A young queen eyed like the morning star:
"I bring thee a rival, O Queen Gulnaar."
But still she gazed in her mirror and sighed:
"O King, my heart is unsatisfied."
Seven queens shone round her ivory bed,
Like seven soft gems on a silken thread,
Like seven fair lamps in a royal tower,
Like seven bright petals of Beauty's flower
Queen Gulnaar sighed like a murmuring rose
"Where is my rival, O King Feroz?"

III
When spring winds wakened the mountain floods,
And kindled the flame of the tulip buds,
When bees grew loud and the days grew long,
And the peach groves thrilled to the oriole's song,
Queen Gulnaar sat on her ivory bed,
Decking with jewels her exquisite head;
And still she gazed in her mirror and sighed:
"O King, my heart is unsatisfied."
Queen Gulnaar's daughter two spring times old,
In blue robes bordered with tassels of gold,
Ran to her knee like a wildwood fay,
And plucked from her hand the mirror away.
Quickly she set on her own light curls
Her mother's fillet with fringes of pearls;
Quickly she turned with a child's caprice
And pressed on the mirror a swift, glad kiss.
Queen Gulnaar laughed like a tremulous rose:
"Here is my rival, O King Feroz."

Read More
Nirvana

Sri Aurobindo Ghosh

All is abolished but the mute Alone.
The mind from thought released, the heart from grief,
Grow inexistent now beyond belief;
There is no I, no Nature, known-unknown.
The city, a shadow picture without tone,
Floats, quivers unreal; forms without relief
Flow, a cinema’s vacant shapes; like a reef
Foundering in shoreless gulfs the world is done.
Only the illimitable Permanent
Is here. A Peace stupendous, featureless, still.
Replaces all, – what once was I, in It
A silent unnamed emptiness content
Either to fade in the Unknowable
Or thrill with the luminous seas of the Infinite.

Read More
Kaavya organises, sponsors and partners with events of global repute. For event updates