जीती!
तुम जितनी सब्जी दे के गए थे, वह ख़त्म हो गई है। जितने फल लेकर दे गए थे वह भी ख़त्म हो गए हैं। फिरज खाली पड़ा है... मेरी ज़िंदगी भी खाली होती हुई सी लग रही है - तुम जितनी साँसे छोड़ गए थे, वह खत्म हो रहीं है...
जीती!
मेरे इस ख़त को लेकर दुःखी मत होना। रात के गहरे अंधेरे में लिखा था। मैं उदास हूं, पर ज़ोरबी हूं, तुम्हारे काम का ख़याल आता है, तो अकेलेपन को बहला लेती हूं। वैसे नहीं मालूम यह उम्र का तकाज़ा है, जिंदगी के बाक़ी रहते थोड़े दिनों का एहसास है...
जीती!
अगर वहां काम का कोई भविष्य दिखाई देता है, तो ज़रूर कोशिश करो, पर व्यर्थ में मत भटकना। यहां घर बैठे हमें सूखी दाल-रोटी भी बहुत है, आज मैं अस्सी बरस की, या किसी पिछले ज़माने की औरत की तरह बातें कर रही हूं — शायद शाश्वत औरत यही होती है)
~ अमृता के ख़त, इमरोज़ के नाम