Neither-Nor

Dr. Pariksith Singh

Essay

About The Author

Dr. Pariksith Singh

Pariksith Singh is, first of all, a poet and a philosopher, though not of any academic mould. He has evolved and is still evolving, his own philosophy of life and work which he has been articulating in terms of his very personalized poetry and equally personalized medical practice. Whether healing a patient, running a business or writi...

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Kalahandi

Dr. Jagannath Prasad Das

Put away the road maps now.
To go there.
You do not need helicopters any more:
wherever there is hunger, Kalahandi is there.
The god of rain turned away his face.
There was not one green leaf left on trees to eat.
The whole village a graveyard
The ground, cracked 
River sand, dried up.
All plans failed;
the poverty line receded further.
Wherever you look,There is a Kalahandi:
In the sunken eyes of living skeletons,
in rags which do not cover frail bodies,
in utensils pawned off for food,
in the crumbling hutswith un thatched roofs,
in the exclusive prosperity
of having owned two earthen pots.
Kalahandi is everywhere:
in the gathering of famished crowds before charity kitchens,
in market places where children are auctioned off, 
in the sigh of young girls sold to brothels,
in the silent processions of helpless people leaving their hearth and home.
Come, look at Kalahandi closer:
In the crocodile tears 
Of false press statements, 
in the exaggerated statistics 
Of computer print-outs,
in the cheap sympathies 
doled out at conferences, 
in the false assurances presented by planners.
Kalahandi is very close to us:
In the occasional contrition of our souls,
in the unexpected nagging of conscience,
in the rare repentance of the inner self.
In the nightmares 
appearing through sound sleep,
in disease,
in hunger,
in helplessness,
in the abject fear
of an impending bloodshed.
How could we then walk
Into celebrated portals 
of the twenty-first century,
leaving Kalahandi behind?

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अल्पविराम

Manoj Krishnan

जब भी मौत आएगी मेरी, मैं उसे चूम लूंगा,
उसकी बेचैन आँखों को चोरी से देख लूंगा।
जिनसे दुनिया, सहमी हुई, फिरती दिखेगी,
उनमें समा कर, शायद थोड़ी ख़ुशी मिलेगी।
थोड़ा तो ज्ञात है मुझे, उसकी भी मनोदशा,
उसे क्या पता इस आंलिगन का भी है मज़ा।
कब से प्रतीक्षा है मुझे इस अंतिम घङी की,
उसके स्पर्श एवं उसमें विलीन हो जाने की।
रह जाएंगी मेरी यादें और मेरे कुछ अवशेष,
अति सुखद होगा इस एकांकी का पटाक्षेप।
इस तरह मेरी ये कहानी समाप्त हो जायेगी,
पर, अल्पविराम के बाद कथा नयी आएगी।
संभवतः आपके लिए ये वदनापूर्ण विषय हो,
हो सकता है थोड़ी असमंजस एवं संशय हो।
परन्तु, इसको मैं परमोक्ष की प्राप्ति मानूंगा,
मृत्यु का वरण कर, जीवन का अर्थ जानूंगा।
जब भी मौत आएगी मेरी, मैं उसे चूम लूंगा,
उन होंठों की कम्पन को, हौले से पढ़ लूंगा।
मृत्यु के चेहरे पर आती ये शिकन बताएंगी,
इक अल्पविराम के बाद कथा नयी आएगी।

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अफ़सोस कहाँ हम आ पहुँचे

Dr. Omendra Ratnu

अब प्यार हुआ इलज़ाम यहाँ, है मक्कारों की पौ बारह,
नफरत में जीना आसान है, अफ़सोस कहाँ हम आ पहुँचे !
क्या शोर हुआ, क्या ज़ोर हुआ,यूँ मर मर के मैं और हुआ,
बस बाकी होश ज़रा सा है, अफ़सोस कहाँ हम आ पहुँचे !
कोई आँख भरी ना ठंडक से, कोई हाथ नहीं है कंधे पर,
हर शख्स यहाँ घबराया है, अफ़सोस कहाँ हम आ पहुँचे !
ना सत्य सुना,ना वाद सुना, ना कल कल जल का नाद सुना,
इक कर्कश स्वर भर आया है, अफ़सोस कहाँ हम आ पहुँचे !
करुणा की गंध भी महकी थी, मुक्ति की हवा भी बहकी थी,
खुदगर्ज़ी ने भरमाया है, अफ़सोस कहाँ हम आ पहुँचे !
तलवार उठा और बाँध कमर, अब आँख उठा और देख सहर,
आने वाली नस्लें न कहें, अफ़सोस कहाँ हम आ पहुँचे !

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An Introduction

Kamala Surayya

I don't know politics but I know the names
Of those in power, and can repeat them like
Days of week, or names of months, beginning with Nehru.

I am Indian, very brown, born in Malabar,
I speak three languages, write in two, dream in one.
Don't write in English, they said,
English is not your mother-tongue.
Why not leave me alone,
Critics, friends, visiting cousins, every one of you?
Why not let me speak in any language I like?
The language I speak,
Becomes mine, its distortions, its queernesses
All mine, mine alone.
It is half English, half Indian,
Funny perhaps, but it is honest,
It is as human as I am human, don't you see?
It voices my joys, my longings, my hopes, 
And it is useful to me as cawing
Is to crows or roaring to the lions,
It is human speech, the speech of the mind that is
Here and not there,
A mind that sees and hears and is aware.
Not the deaf, blind speech
Of trees in storm or of monsoon clouds or of rain 
Or the incoherent mutterings of the blazing funeral pyre.

I was child, and later they told me I grew, for I became tall, 
My limbs swelled and one or two places sprouted hair.
When I asked for love, not knowing what else to ask for 
He drew a youth of sixteen into the bedroom and closed the door,
He did not beat me
But my sad woman-body felt so beaten.
The weight of my breasts and womb crushed me.
I shrank Pitifully.
Then… I wore a shirt and my brother's trousers, 
Cut my hair short and ignored
My womanliness.
Dress in sarees, be girl, be wife, they said.
Be embroiderer, be cook,
Be a quarreller with servants.
Fit in. Oh, Belong, 
Cried the categorizers.
Don't sit on walls or peep in through our lace-draped windows.
Be Amy, or be Kamala.
Or, better still, be Madhavikutty.
It is time to choose a name, a role.
Don't play pretending games.
Don't play at schizophrenia or be a nympho.
Don't cry embarrassingly loud when jilted in love...

I met a man, loved him.
Call him not by any name, 
He is every man who wants. a woman, 
Just as I am every woman who seeks love.
In him... the hungry haste of rivers, 
In me... the oceans' tireless waiting.
Who are you, I ask each and everyone,
The answer is, it is I.
Anywhere and, everywhere, I see the one who calls himself I
In this world, he is tightly packed like the sword in its sheath.
It is I who drink lonely drinks at twelve, midnight,
In hotels of strange towns,
It is I who laugh,
It is I who make love
And then, feel shame, 
It is I who lie dying
With a rattle in my throat.
I am sinner, I am saint.
I am the beloved and the betrayed.
I have no joys that are not yours,
No aches which are not yours.
I too call myself I.

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तू अब भी है

Dr. Omendra Ratnu

सब लुट गया तो क्या, तू अब भी है,
अँधेरी रातों में तेरी महक अब भी है !
टूटती नहीं ये खुमारी क्या करें,
वजूद में मेरे घुली मिली, तू अब भी है !
जानता हूँ खूब नज़र फिर गयी तेरी,
दिल की तन्हाईयों में मगर , तू अब भी है !
तेरे होने, ना होने से अब फ़र्क नहीं कोई,
इस आशिकी के जुनून में ,तू अब भी है !
दौर-ए-हिज्र में हालांकि हुए घायल,
एहसास-ए-शुक्रमंदी में, तू अब भी है !
तिजारत की दुनिया रखे हिसाब तेरा,
इश्क में आज़ाद तू तब भी थी , तू अब भी है

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चिन्ता-सी सुलगती है

Kailash Manhar

तापने के दिन अभी नहीं आये लेकिन
जलावन तो करनी है इकठ्ठी
कार्तिक की इस चिरपरी शरद में
आने वाली शीत लहर का अंदेशा तो है
हाड़ों को कांपने से बचाना तो है कि
गुड़ खरीद लिया जाये दसेक किलो और
लालड़ी गोंद टाबरों के लिये
घी का हो जाये इन्तज़ाम तो बहुत अच्छा
वर्ना तिल्ली का तैल तो हो पांचेक सेर
बाजरे की भी खरीदनी तो है एक बोरी क्योंकि
राशन का गेंहू तो पूरा नहीं पड़ता वैसे ही
त्यौहार पे त्यौहार और पड़ने हैं इन्हीं दिनों
दुनिया भर में होगी चकाचौंध
पाँच दीये तो हम भी जलायेंगे चौखट पर
मजूरी मिलती रहे लगातार राम करे
पलते रहें बाल-बच्चे निरापद
तापने के दिन हालांकि अभी नहीं आये
चिन्ता-सी सुलगती है मन में बिन सुलगाये

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Zakhm phir se khula

Dr. Pariksith Singh

ज़ख्म फिर से खुला तो हुआ आईना
लहू की जगह बस एक शुआ आईना
तेरा ही अक्स झलकता था नज़रों में
दिल से उठती बस एक दुआ आईना

A wound opened again and became the mirror
In place of blood, a ray of light the mirror
Your reflection alone shimmered in my eyes
Only a prayer arising from my heart the mirror

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Waqt Guzar Gayaa

Dr. Pariksith Singh

वक़्त गुज़र गया मेरे दोस्त मगर शाम वही है
पीने वाले गुज़र गए पर जाम वही है
बाजारों में भाव भी कल उठते चले गए
बिक जाने का मगर दाम वही है
Time has passed us by, my friend, but the evening is the same.
The revelers have passed us by, but the wine is the same.
Yesterday, the prices of things in the bazaar went up high
The price of getting sold here still remains the same.

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इसका रोना

Subhadra Kumari Chauhan

तुम कहते हो - मुझको इसका रोना नहीं सुहाता है ।
मैं कहती हूँ - इस रोने से अनुपम सुख छा जाता है ।
सच कहती हूँ, इस रोने की छवि को जरा निहारोगे ।
बड़ी-बड़ी आँसू की बूँदों पर मुक्तावली वारोगे । 1 ।

ये नन्हे से होंठ और यह लम्बी-सी सिसकी देखो ।
यह छोटा सा गला और यह गहरी-सी हिचकी देखो ।
कैसी करुणा-जनक दृष्टि है, हृदय उमड़ कर आया है ।
छिपे हुए आत्मीय भाव को यह उभार कर लाया है । 2 ।

हँसी बाहरी, चहल-पहल को ही बहुधा दरसाती है ।
पर रोने में अंतर तम तक की हलचल मच जाती है ।
जिससे सोई हुई आत्मा जागती है, अकुलाती है ।
छुटे हुए किसी साथी को अपने पास बुलाती है । 3 ।

मैं सुनती हूँ कोई मेरा मुझको अहा ! बुलाता है ।
जिसकी करुणापूर्ण चीख से मेरा केवल नाता है ।
मेरे ऊपर वह निर्भर है खाने, पीने, सोने में ।
जीवन की प्रत्येक क्रिया में, हँसने में ज्यों रोने में । 4 ।

मैं हूँ उसकी प्रकृति संगिनी उसकी जन्म-प्रदाता हूँ ।
वह मेरी प्यारी बिटिया है मैं ही उसकी प्यारी माता हूँ ।
तुमको सुन कर चिढ़ आती है मुझ को होता है अभिमान ।
जैसे भक्तों की पुकार सुन गर्वित होते हैं भगवान । 5 ।

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झांसी की रानी

Subhadra Kumari Chauhan

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़।
महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आई थी झांसी में।
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात?
जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
रानी रोईं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजई रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आई बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

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